आज़ादी का आंदोलन और मुस्लिम महिलाएं
- प्रोफेसर सालेहा रशीद
- Oct 1, 2022
- 11 min read
Updated: Oct 8, 2022
प्रोफेसर सालेहा रशीद


प्रोफेसर सालेहा रशीद
HOD, Arabic-Persian Department
Allahabad University
आज हम आज़ाद हिन्दुस्तान में सांस ले रहे हैं | आजादी के किस्से हमने अपने बड़ लोगों से सुने ,कुछ किताबों में पढे लेकिन उनकी असलियत से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं |

सन् 1857 में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ी जाने वाली आज़ादी में वतन अज़ीज़ के बहुत सारे लोगों ने अपनी जानें कुरबान कर दी| इस जंग में हर तबके के लोग शामिल रहे यहां तक कि औरतें और बच्चों ने भी बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लिया हमारी वतमान वज़ीरे आज़म इंदिरा गांधी ने बच्चों की वानर सेना तैयार की थी जो बेगम रिसानी का काम करती थी । इस जमाने में कुछ औरतों के नाम जैसे-रानी लक्ष्मी बाई, सावित्री बाई फूले, फातिमा शेख ,दुगा भाभी, सुरैया तैय्यब जी, सरोजनी नायडू, बेगम हजरत महल, नवाब भोपाल , अजीजन बाई वगैरह ज़्यादातर पूरे मुल्क की औरतें अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुई । कुछ ने अपने पतियों के साथ सलीके के साथ काम किया और कुछ बेजात खुद्दास अभियान में कूद पड़ी और मौके की नज़ाकत के यकीन से मदद की |
उनमें से एक का नाम आबादी बानो बेगम का है जो उर्फ बी अम्मा कहलायी गयी । आप बीसवीं सदी में जंग-ए-आज़ादी का संचालन करती नजर आती हैं । इस तारीख को सनु हरे शब्दों में लिखा जाना चाहिए । शायद इन्हीं औरतों के लिए इकबाल कह गये- मेंढकों को आकाशगंगा पर गर्व होता है, जिनके जबडों के लिए यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि - अभी रौशन हुआ जाता है रास्ता, वो देखो एक औरत आ रही है | बी अम्मा मौलाना मुहम्मद अली जोहर की मां हैं और बिनफिस नफीस इस जंग में शामिल रहे | सय्यद आला हरार मोलाना मोहम्मद अली जोहर की अहद-साज शख्सियत से वाक़िफ होना ज़रुरी है । पहला, क्योंकि आप उसके वतन से हैं इस अस्तित्व की वजह से उन्होंने आपका पालन-पोषण किया |
दूसरा, इस लिए कि उन्होनें आप की परवरिश व पाला-पोसा सामान्यत ये दोनों ही जिम्मेदारियां एक मां की होती है । बच्चे के जन्म, पालन-पोषण और शिक्षा की प्रक्रिया की देखरेख अक्सर मां करती है लेकिन कुछ मां ऐसी भी हैं जो इस तरह से एक छोटी सी लगने वाली जिम्मेदारी को इस तरह निभाया कि जिसकी बदौलत उन का नाम इतिहास में हमेशा के लिए लिखा गया । इतिहास में एक नाम बी अम्मा का भी है बी अम्मा मतलब मोहम्मद अली व शौकत अली की मां चूंकि आबादी बानो बेगम जो अपने असली नाम की बजाए अपनी किनीयत से मारुफ हुईं और न फकत अली बिरादर एन बल्कि वह तो मुस्लिम, गैर मुस्लिम हर किस व न-किस मानों पूरा खिलाफत आंदोलन और पूरे देश राष्ट्र की मां हो गयीं।
आबादी बानो बेगम की पैदाईश सन् 1852 ई में रामपुर उत्तर प्रदेश में एक ऐसे खानदान में हुई जिसके तार लाल किले से मिलते थे । सन्1857 ई में जब अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ हिन्दुस्तानी उठ खड़े हुए उस वक्त आबादी बानो बेगम की उम्र तकरीबन 5 साल की थी उन्होंने अशांत वातावरण में आंख खुली कि स्कूली तालीम हासिल करने से महरुम रहीं । घर पर ही कलाम पाक पुरा किया तथा इस्लामी तालीम मुकम्मल की । जहां एक तरफ उन्हें अल्लाह और उसके रसूल सल्लाहुअलैहह वसल्लम से बेइंतहा मोहब्बत थी वहीं दूसरी तरफ वह बहुत जागरूक और जानकारी रखने वाली औरत भी थीं। मजहब इस्लाम जो यह होशपूर्वक और अनजाने में उनकी रगों में समाया हुआ था उस की रोशनी में उन्होंने अपने हक और फज्र् की अदायगी ,अपनी जिंदगी के साथ-साथ अपने समाज की जिम्मेदारियां उठानी सीख ली ।
उन्हें वैराग्य, विचार और कर्म की पवित्रता, भाईचारा और प्रेम, नेक सेवा, अच्छे शिष्ट्टाचार और सदाचार जैसे महान गुणों का भी आशीर्वाद प्राप्त था। उनके शौहर अब्दलु अली खान भी रामपुर में ही सन् 1847 ई में पैदा हुए । उनके खानदान अफराद रामपुर में मुखतलिफ ओहदों पर फाइज थे और वह खुद रामपुर स्टेट में नौकर थे । आबादी बानो बेगम और अब्दलु अली खान रिश्ते अजदवाज से पांच बेटे और एक बेटी पैदा हुई । बेटों में बन्दह अली, जुल्फिकार अली, शौकत अली , नवाजिश अली और सबसे छोटे मोहम्मद अली और बेटी महमुदी बेगम हुई | उनके शौहर का जल्दी ही हैजा के मर्ज में मुबतला होकर 17 रमजान मुबारक 1297 सन् हिजरी बमुताबिक 2 अगस्त 1880 सन् महज 32 साल की उम्र में इन्तिकाल हो गया | उस वक्त आबादी बानो बेगम की उम्र 27 साल से ज्यादा की न थी । इतनी कम उम्र में विधवा देखकर लोगों को उनसे बहुत हमदर्दी हुई । कुछ ने तो सहानुभूति से उन्हें दूसरी शादी का विचार दिया । इस पर आजादी बानो बेगम ने बहुत सब्र और आजादी का परिचय देते हुए कहा – कि मेरे शौहर ने मेरी काफी देख-भाल की और अब मैं अपने पांच शौहरों ( लड़कों) की और एक बीवी (लड़की) की देखभाल करुंगी ।
उस वक्त मोहम्मद अली जो सबसे छोटे, उनकी उम्र यही कोई पौने दो साल की थी उनके बेटे बन्दह अली की मौत कम उम्र में ही हो गयी और नवाजिश अली तेरह चौदह साल की उम्र में गुजर गये । उनकी बेटी महमुदी बेगम की शादी उनके चाचा जाद भाई यानि अब्दलु अली के भाई असगर अली के बेटे यूसुफ अली से हुई । जब उनके बड़े बच्चे की मौत हुई तो आबादी बानो ने यह देखकर बहुत सब्र किया और कहा कि – हमें अल्लाह की मर्जी पर सिर झुकाना चाहिए । हमारी जिन्दगी और मौत अल्लाह के हाथ है उसने जो दिया वह वापस ले सकता है |
शौहर के गुजर जाने के बाद बच्चों की परवरिश और तालीम व तरबीयत की सारी जिम्मेदारी आबादी बानो पर आ गई । वो खुद ज्यादा पढी-लिखी नहीं थीं लेकिन नई तालीम की बहुत कमी थी | घर में कुछ खास पूंजी नहीं थी ,उस पर यह कि शौहर की मौत के बाद उन पर 30 हजार के कर्ज़ का बोझ आ पड़ा । दूसरे शब्दों में उन्हें माली मुश्किल का सामना करना पड़ा | गरीबी के बाद भी अपने बच्चों को बेहतरीन तालीम से सजा हुआ सपना बराबर देखती रहीं । यहां तक कि वे स्वंय भी पवित्र कुरआन की अच्छी ज्ञाता थीं । लेकिन उन्हें पढ़ने-लिखने की इच्छा बहुत थी | वो गैर सामान्य स्मृति रखती थी और जब कभी उनके शौहर कोई किताब घर छोड़ कर चले जाते थे तो वह किसी से किताब पढ़वाकर सुनती और उसे याद कर लेती | वह परदे की भी खास पाबंदी करती थी | इन सबके हमराह उन्होंने अपने बच्चों को हिम्मत व भविष्य के साथ जिन्दगी गुजारने की हिदायत की | वह बहुत सख्त मिजाज़ थीं और अपने पाकीजा इरादों पर मजबूती से कायम रहती थीं | इस बात पर उनके अपने पराये उनसे दूर हो गये । उन्होनें ऐसे लोंगो की परवाह नहीं की | जिन्दगी के तज़ुरबात ने उन्हे बेदार बना दिया । उनका ख्वाब था कि उनके बच्चे उम्दा तालीम हासिल करके मुल्क व कौम की खिदमत करें | इसलिए उन्होनें अपने जेवर और अपनी जागीर का बहुत बङा हिस्सा बेच दिया | वो जागीर उनके ससुर अली बख्श खान की कमाई हुई थी । ये सब अली बख्श ने गदर के जमाने में रूहीलघंटा और कमाइयों में नाश अंग्रेज़ों और अफसरों की जान बचाने के सिले में मिली थी |

खानदान वालों के मना करने के बावजूद उन्होने बेटे शौकत अली को बरेली तालीम हासिल करने के लिए भेजा । कुछ सालों बाद मोहम्मद अली भी बरेली पहुंच गये | मौलाना मोहम्मद अली का हर अपना बयान इस मामले में काफी रोशनी ङालता है | फरमाते हैं – हमारे चाचाओां के मुकाबले सबसे पहले घर से बाहर निकालकर बरेली स्कूल में दाखिले के लिए वालिदा मरहूम ने भेजे । शौकत साहब जिस तरह रियासत रामपुर के बाशिंदों में संभवत सबसे पहले किसी हिन्दुतानी विश्विदालय ग्रैजुएट हुए । इसी तरह उनमें सबसे पहले ऑक्सफोर्ड ग्रैजुएट हुए । हमारे सबसे बड़े चाचा जो हमारी जायदाद का इंतजाम फरमाया करते थे और रियासत में एक बड़े मुकाम पर मौजदू थे | उस वक्त जिन्दा थे जब मैं उनका सबसे छोटे भाई का सबसे छोटा लड़का और एक विधवा का पाला हुआ उस रियासत में उनसे भी बड़े मुकाम पर नियुक्त किया गया तो उन्होनें इस सम्मान में मुझे गले लगा लिया और प्यार किया |
ऐसी ही माओं की अज़मत को अल्लामा इकबाल ने प्रकाशित किया है- तेरी अंजुम प्रलिक्षण के साथ धन्य था मेरे पूर्वजों को सम्मानित किया गया । आबादी बानो बचपन से ही अपने खानदान और आस-पास ऐसे हादसे और वाकयात देखकर अंग्रेज़ों के खिलाफ गुस्सा और कौम की खिदमत का ज़ज्बा उनके अंदर हर वक्त मौजदू रहता | उनके खानदान का ताल्लकु क्योंकि लालकिले से था इसलिए अंग्रेज़ उस खानदान से बेवजह दुश्मनी बरतते थे । आबादी बानो के चाचा को 70 साल की उम्र में मुरादाबाद में फांसी दी गयी | उनकी शिष्ट्टता का ये आलम था कि उन्होंने खुद ही फांसी का फंदा गले में ङाल लिया |
आबादी बानो के तीनों बेटे आगे चलकर बहुत मशहूर हुए । छोटा बेटा मोहम्मद अली बहुत होशियार और ताकतवर भी थे लेकिन इनके साथ इसे गुस्सा भी बहुत आता था | इसकी फितरत में शुरु से ही नेतृत्व के आसार मौजदू थे, वे बरेली स्कूल में ही बच्चों का नेता बन गया | आबादी बानो का अपने बच्चों के किरदार में भूमिका रही । वो अल्लाह से अपने बच्चों के लिए विश्वास के चरित्र अता करने की दुआएं मांगती थीं । यहॉं तक कि जब हज को गयी, खाना काबा का गिलाफ पकड़कर दुआ मांगी कि ए अल्लाह मेरे बच्चे बड़े हो गये हैं उन्हें इस्लाम की राह पर चलाना |उनके दो बेटे शौकत अली और मोहम्मद अली उनके सपनों की व्याख्या थे | उन दोनों के व्यक्तित्व पर उनकी मॉं का उत्तम नक्षस था जैसी बाहिम्मत मां वैसे ही प्रिय पुत्र |
मोहम्मद अली जिसपर उनकी मां की तालीम व तरबीयत का ही नतीजा था कि उन्हें किसी का राज्य रोजगार पसंद नहीं आया | इसलिए वह राज्य छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तीव्रता के साथ शामिल हो गए । बस फिर क्या था कैद और बन्दियों के बीच सहयोग की एक अंतहीन श्रृंखला शुरु हो गई थी | यहां तक पहुंचते-पहुाचते मोहम्मद अली काफी मशहूर हो चुके थे और उनकी मां यानि आबादी बानो बेगम अवाम में बी अम्मा के नाम से जानी जाने लगी । बी अमा को हिंदुस्तानियों का अंग्रेज़ों के रंग में बिल्कुल पसंद नहीं था । वह लोगों को अंग्रेज़ों की गुलामी छोड़ने के लिए समझाती, उनके नजदीक अंग्रेज़ों की खिदमत और इनाम व सम्मान प्राप्त करना एक बाधा थी | वह अंग्रेज़ों की चालाकी और मक्कारी जान चुकी थीं । जब मोहम्मद अली जेल जाते तब बी अम्मा बहुत जज्बाती हो जाती वो जेल जाती अपने बच्चे को समझाती कि बेटा इस्लाम पर कायम रहना चाहिए चाहे तुम्हारी जान चली जाए ।
इसी प्रासंगिकता से किसी अनजाने शायर ने जो कहा, वह बहुत मशहूर हुआ – कहो, खलीफा के पुत्र मुहम्मद अली का जीवन तुम्हारे साथ मेरे बेटे ने भी खिलाफत के लिए मातम मनाया अगर मेरे सात बेटे होते तो मैं खिलाफत की सेवा कराती एक बार बी अम्मा की मौजदूगी में किसी ने मुहम्मद अली की तारीफ करते हुए कहा अम्मा- यह सब आपकी बिना थके कोशिश और तरबीयत का नतीजा है जिसने इनको इतनी शोहरत और लोकप्रियता दिलाई | बी अम्मा ने तुरंत जवाब दिया तुम गलत हो यह अल्लाह का इनाम है क्योंकि वह जिसको चाहे इज्जत दे और जिसको चाहे जिल्लत दे | बी अम्मा की परवरिश का नतीजा था कि मोहम्मद अली तकरीर करते हुए कहते थे कि मैं हजरत राबिया बसरी रज़ी मुताबिक याद दिलाता हूं सलाता इश्क वज़ाखनी से होता है |
बी अम्मा के बच्चे जेल में होते तब वह खुद खिलाफत आंदोलन जिन्दा रखने की कोशिश करती | वह एक ऐसी बाहौसला औरत थीं जो खुद बढ़-चढ़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेती नौजवानों का नेतृत्व करती, उनकी हौसला बढ़ाती उद्देश्य कि उनकी सादा जिन्दगी उथल-पुथल से भरी थी । अपने फज्र से भी कभी उन्होंने दृश्य दिखाई नहीं दी सन् 1912 में 20 साल में भी चालाक थीं | एक बार अली बरादरान गिरफ्तार हुए तब लोग बहुत फिक्रमंद हो गये और उनकी रिहाई का समाधान करने लगे । वह अंग्रेज़ों के शर्त समझौते पर हस्ताक्षर किए होते, तो उन्हें रिहा कर दिया जाता, लेकिन बी अम्मा ने इस अवसर पर अत्यधिक गुस्से में आकर कहा कि हमारे बेटे सरकार के विद्रोही नहीं थे, लेकिन उनके पास अभी भी इस्लामी कर्तव्य हैं और अगर उन्हें सरकार का पालन करना है इस अनुबंध पर बिना शर्त हस्ताक्षर करेंगे तो अल्लाह त-आला मेरे छुर्रियों भरे हाथों में ताकत देगा कि मैं इन दोनों का गला घोंट दूंगी |
मुहम्मद अली को इतनी बाहौसला बी अम्मा की तरबीयत हासिल था । एक बार उन्होंने जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर कलाकार को चित्र बनाते देखा उसने एक भिखारिन और दो बच्चों को फटे कपङों में भीख मांगते देखा | मौलाना ने तस्वीर देखकर कलाकार से कहा इस औरत के नीचे यह और लिख दो इसके वालिद ने इसे बनाया । ये वाक्य कितने बुरे हैं ? और मुहम्मद अली पर उनकी मां की तरबीयत का दुभाषिया है । अपनी मां की मोहब्बत , ममता और तरबीयत से प्रभावित मुहम्मद अली भी अपनी पत्नी और बेटियों का बहुत ज्यादा ख्याल आता था । उनकी चार बेटियों में एक बेटी आमना की मौत बी अम्मा की जिन्दगी में हुआ | बी अम्मा नेना सिर्फ अपने बेटों के दिल में खुदा का खौफ और किस्मत मुल्क के जुननू को भरा । बल्कि वह खुद भी कौम के जज्बे इसके विपरीत वह स्वंय राष्ट्रवाद की भावना की नेता थीं और लोगों के दिलों में राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए दूर-दूर तक यात्रा करती थीं । महफिलें करतीं और प्रभावी भाषण करतीं । उनकी बातें इतनी दिलचस्प होती कि लोगों को दिमागी और फिक्री तौर पर तैयार करके खिलाफत की हिमायत में खड़ा कर देंती | सन् 1915 में जब अली बरादरान को नजरबन्द किया गया तो बी अम्मा पर इसका बहुत असर हुआ । उनकी सेहत कुछ खराब रहने लगी | सन् 1921 में जब उनके बेटों को दो बार गिरफ्तार किया गया तो वह खुद को रोक न पाई और स्वतंत्रता आंदोलन की सिपाही बनकर मैदान में आ गईं ।
वह ज्यादा उम्र के बावजूद लम्बे सफर करती न सिर्फ रेल यात्रा का सफर बल्कि बैल गाङी औऱ पैदल सफर भी उनके जोश में कमी न लाता । सफर के दौरान रेल रुकती तो स्टेशन पर भीड बी अम्मा को देखने और उनकी बातें सुनने के लिए जमा हो जाती, देर रात तक जलसे करती, तकरीरें करती लेकिन अन्य धार्मिक और पारिवारिक मामलों के भुगतान में जरा भी बराबर नहीं होता |
18 अगस्त सन् 1920 को बी अम्मा स्वतांत्रता आांदोलन के जलसे में अपने बेटे मौलाना शौकत अली के गिरला के साथ लेकते झील के किनारे बैठक हुई थी । उन्होंने यहां के लोंगो को उर्दू में संबोधित किया था | सन् 1922 में बी अम्मा ने अपने बेटे मोहम्मद अली के साथ यूपी के इलाकों का दौरा किया इसी सिलसिल में आप सहारनपुर तशरीफ ला आईं । महफिल खिलाफत सहारनपुर की तरफ से आप का अच्छा स्वागत हुआ, विभिन्न कार्यक्रम सोचे गये | इनके अलावा औरतें का भी एक बड़ा जलसा जमा हो गया । इस जलसे में बी अम्मा ने बहुत असरदार और दुखी तकरीर की । इस मौके पर औरतों इस अवसर पर ने बडी संख्या में मजलिस पाठ में मदद की और बी अम्मा के आह्वान पर अपने कीमती गहने भेंट किए । मौलाना सय्यद अबुहसन अली नदवी ने उनके इसी दौरे के सिलसिले में लिखा है कि सन् 1923 ई. उनके वालिद मौलाना अली मौलाना हकीम सैयद अब्दुल हय साहब का निधन हो गया और रायबरेली नहीं आए, इसलिए मृत मां उनकी याद में थी और उनका मिजाज़ पूछने के लिए आई थीं ।
कौम की खिदमत के साथ-साथ दूसरों के लिए -उनकी करुणा और ईमानदारी बरकरार थी | सन् 1923 ई. का ही वाकया है बी अम्मा की सेहत ज्यादा खराब रहने लगी थी लेकिन फिर भी उन्होंने जामिया मिल्लि. इस्लामिया के उस्ताद के जलसे में शामिल हुईं और कुछ शब्द कहे इन अल्फाज में – बेटा मैंने बुर्का उतार दिया, अब इस शहर में किसी की इज्जत बाकी नहीं रही जो मैं बुर्का पहंनु । मैंने अपने झांङे को लालकिले से उतरते देखा है । मेरी तमन्ना है कि इस फिरंगी झंडे को भी लालकिले से उतरते देखूं | कामरेड और हमदर्द अखबार मोहम्मद अली के बहुत करीब थे | बी अम्मा का इन अखबारों की इशायत में था | सन् 1924 ई. में जब कामरेड दोबारा छपना शुरु हुआ तो बी अम्मा चलने-फिरने में परेशानी के बावजूद खदु सेल्फ प्रेस गईं, प्रूफ देखा, वर करकानु में मिठाई तकसीम की | इसी बीच, खिलाफत आंदोलन समाप्त हो गया, बी अम्मा इसे सहन नहीं कर सकी |
आखिर में सन् 1924 ई. में ही 12 -13 नवंबर बुध , जुमरेात की बीच की रात 2 बजकर दस मिनट पर हिंदुस्तान की इस माया नाज हस्ती ने शहर बका को अलविदा कहा | वो जो पूरी कौम की बी अम्मा थीं | जो एक बडी मुजाहिदा थीं, जो अपनों से जुदा हो गई | ये वो बी अम्मा थीं जिन्हें सारी राजनीतिक दलों नेताओं और लोग बी अम्मा कहते थे | उनकी मौत से पूरा शहर गम के समुंदर में ङुब गया | सभी ताजिती जलसा किए गये और उन्हें श्रृदंधाजलि अर्पित की गई । inna lil-lahi vainna ilaihi raajiun -अल्लाह से दुआ है कि इस कौम को फिर एक बी अम्मा से नवाज दे | आमीन ।
Comments